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Sunday, August 1, 2010

दफ्तर का बाबू

कहते हैं हर कुत्ते के दिन आते हैं
 पर ये मुहावरे इंसानों में झुठलाये जाते हैं

ऐसा ही एक जीव है दफ्तर का बाबू
 जिसके नहीं आते कोई हालात काबू

उसे रोज सुबह वही ड्यूटी बजानी पड़ती है
 थकान बीमारी में भी यही कहानी दोहरानी पड़ती है

रोज वही फाइल बनानी होती है
 और बस की वो यात्रा भी बितानी होती है

सूट-बूट, परफ्यूम से इज्जत बनानी होती है
 कभी क्लाइंट तो कभी बॉस से निभानी होती है

घर आकार भी बीवी की झिडक खानी होती है
 और वही रूखी-सूखी खानी होती है
शर्मा-वर्मा जी से भी बात करनी है
 क्योंकि सोसाइटी में इमेज भी तो बनानी होती है

आप एक मजदूर को आँखें दिखाइए
 वह त्योरियाँ चढ़ा खड़ा हो जाएगा
कुली को डाट मारिये
 तो सर से बोझ फ़ेंक चला जाएगा
किसी भिखारी को दुत्कार दीजिए
 आपको गुस्से से देख चला जाएगा
पर इस दफ्तर के बाबू को
 चाहे आप आँख दिखाएँ या डाट बताएं
उसके माथे पर
 एक बल न आएगा
शायद किसी संयमी साधू में भी
 अपने विचारों पर ऐसा अधिपत्य नहीं पायेगा

खंडहरों के भी दिन बदलते हैं
 बरसात में वो भी हरियाते हैं
  दिवाली पर जगमगाते हैं

पर इस बेचारे बाबू के चेहरे पर
 मुस्कराहट कौन लाएगा ...


                                  जितेन्द्र कुमार 'गगन'

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