कहते हैं हर कुत्ते के दिन आते हैं
पर ये मुहावरे इंसानों में झुठलाये जाते हैं
ऐसा ही एक जीव है दफ्तर का बाबू
जिसके नहीं आते कोई हालात काबू
उसे रोज सुबह वही ड्यूटी बजानी पड़ती है
थकान बीमारी में भी यही कहानी दोहरानी पड़ती है
रोज वही फाइल बनानी होती है
और बस की वो यात्रा भी बितानी होती है
सूट-बूट, परफ्यूम से इज्जत बनानी होती है
कभी क्लाइंट तो कभी बॉस से निभानी होती है
घर आकार भी बीवी की झिडक खानी होती है
और वही रूखी-सूखी खानी होती है
शर्मा-वर्मा जी से भी बात करनी है
क्योंकि सोसाइटी में इमेज भी तो बनानी होती है
आप एक मजदूर को आँखें दिखाइए
वह त्योरियाँ चढ़ा खड़ा हो जाएगा
कुली को डाट मारिये
तो सर से बोझ फ़ेंक चला जाएगा
किसी भिखारी को दुत्कार दीजिए
आपको गुस्से से देख चला जाएगा
पर इस दफ्तर के बाबू को
चाहे आप आँख दिखाएँ या डाट बताएं
उसके माथे पर
एक बल न आएगा
शायद किसी संयमी साधू में भी
अपने विचारों पर ऐसा अधिपत्य नहीं पायेगा
खंडहरों के भी दिन बदलते हैं
बरसात में वो भी हरियाते हैं
दिवाली पर जगमगाते हैं
पर इस बेचारे बाबू के चेहरे पर
मुस्कराहट कौन लाएगा ...
जितेन्द्र कुमार 'गगन'
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